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व॒यं नाम॒ प्र ब्र॑वामा घृ॒तस्या॒स्मिन्य॒ज्ञे धा॑रयामा॒ नमो॑भिः। उप॑ ब्र॒ह्मा शृ॑णवच्छ॒स्यमा॑नं॒ चतुः॑शृङ्गोऽवमीद्गौ॒र ए॒तत् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vayaṁ nāma pra bravāmā ghṛtasyāsmin yajñe dhārayāmā namobhiḥ | upa brahmā śṛṇavac chasyamānaṁ catuḥśṛṅgo vamīd gaura etat ||

पद पाठ

व॒यम्। नाम॑। प्र। ब्र॒वा॒म॒। घृ॒तस्य॑। अ॒स्मिन्। य॒ज्ञे। धा॒र॒या॒म॒। नमः॑ऽभि। उप॑। ब्र॒ह्मा। शृ॒ण॒व॒त्। श॒स्यमा॑नम्। चतुः॑ऽशृङ्गः। अ॒व॒मी॒त्। गौ॒रः। ए॒तत् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:58» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (चतुःशृङ्गः) चारवेद शृङ्गों अर्थात् शिखरों के सदृश जिसके ऐसा (ब्रह्मा) चार वेदों का जाननेवाला जिस (शस्यमानम्) प्रशंसा करने योग्य को (उप, शृणवत्) समीप में सुने और (गौरः) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणी में रमनेवाला जो (अवमीत्) उपदेश देवे सो (एतत्) इस (घृतस्य) जल की (नाम) संज्ञा को (वयम्) हम लोग (प्र, ब्रवाम) उपदेश देवें और (अस्मिन्) इस (यज्ञे) वर्षा आदि जलव्यवहार में (नमोभिः) अन्न आदि पदार्थों से उसको (धारयाम) धारण करावें ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! चारवेद का जाननेवाला यथार्थवक्ता जन जैसा उपदेश करे और जिस सिद्धान्त का निश्चय करे, वैसे सिद्धान्त का हम लोग भी उपदेश और निश्चय करें ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

चतुःशृङ्गो ब्रह्मा यं शस्यमानमुप शृणवद् गौरो यदवमीत्तदेतद् घृतस्य नाम वयं प्र ब्रवामास्मिन् यज्ञे नमोभिस्तं धारयाम ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वयम्) (नाम) (प्र) (ब्रवाम) उपदिशेम। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (घृतस्य) उदकस्य (अस्मिन्) (यज्ञे) वर्षादिजलव्यवहारे (धारयाम) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नमोभिः) अन्नादिभिः (उप) (ब्रह्मा) चतुर्वेदवित् (शृणवत्) शृणुयात् (शस्यमानम्) प्रशंसनीयम् (चतुःशृङ्गः) चत्वारो वेदाः शृङ्गाणीव यस्य (अवमीत्) उपदिशेत् (गौरः) यो गवि सुशिक्षितायां वाचि रमते सः (एतत्) ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याश्चतुर्वेदविदाप्तो यादृशमुपदेशं कुर्य्याद् यं सिद्धान्तं निश्चिनुयात् तादृशमेव वयमप्युपदिशेम निश्चिनुयाम च ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! चार वेद जाणणारा आप्त (विद्वान) जसा उपदेश करतो व ज्या सिद्धांताचा निश्चय करतो, तशाच सिद्धांताचा आम्ही उपदेश व निश्चय करावा. ॥ २ ॥